Wednesday, 8 May 2013

श्री हरसू ब्रह्‌म चालीसा (Shri Harsu Brahm Chalisa)


श्री हरसू ब्रह्‌म चालीसा (Shri Harsu Brahm Chalisa)



बाबा हरसू ब्रह्‌म के चरणों का करि ध्यान।
चालीसा प्रस्तुत करूं पावन यश गुण गान॥
हरसू ब्रह्‌म रूप अवतारी।
जेहि पूजत नित नर अरु नारी॥१॥
शिव अनवद्य अनामय रूपा।
जन मंगल हित शिला स्वरूपा॥ २॥
विश्व कष्ट तम नाशक जोई।
ब्रह्‌म धाम मंह राजत सोई ॥३॥

निर्गुण निराकार जग व्यापी।
प्रकट भये बन ब्रह्‌म प्रतापी॥४॥
अनुभव गम्य प्रकाश स्वरूपा।
सोइ शिव प्रकट ब्रह्‌म के रूपा॥५॥
जगत प्राण जग जीवन दाता।
हरसू ब्रह्‌म हुए विखयाता॥६॥
पालन हरण सृजन कर जोई।
ब्रह्‌म रूप धरि प्रकटेउ सोई॥७॥
मन बच अगम अगोचर स्वामी।
हरसू ब्रह्‌म सोई अन्तर्यामी॥८॥
भव जन्मा त्यागा सब भव रस।
शित निर्लेप अमान एक रस॥९॥
चैनपुर सुखधाम मनोहर।
जहां विराजत ब्रह्‌म निरन्तर॥१०॥
ब्रह्‌म तेज वर्धित तव क्षण-क्षण।
प्रमुदित होत निरन्तर जन-मन॥११॥
द्विज द्रोही नृप को तुम नासा।
आज मिटावत जन-मन त्रासा॥१२॥
दे संतान सृजन तुम करते।
कष्ट मिटाकर जन-भय हरते॥१३॥
सब भक्तन के पालक तुम हो।
दनुज वृत्ति कुल घालक तुम हो॥१४॥
कुष्ट रोग से पीड़ित होई।
आवे सभय शरण तकि सोई॥१५॥
भक्षण करे भभूत तुम्हारा।
चरण गहे नित बारहिं बारा॥१६॥
परम रूप सुन्दर सोई पावै।
जीवन भर तव यश नित गावै॥१७॥
पागल बन विचार जो खोवै।
देखत कबहुं हंसे फिर रोवै॥१८॥
तुम्हरे निकट आव जब सोई।
भूत पिशाच ग्रस्त उर होई॥१९॥
तुम्हरे धाम आई सुख माने।
करत विनय तुमको पहिचाने॥२०॥
तव दुर्धष तेज के आगे।
भूत-पिशाच विकल होई भागे॥२१॥
नाम जपत तव ध्यान लगावत।
भूत पिशाच निकट नहिं आवत॥२२॥
भांति-भांति के कष्ट अपारा।
करि उपचार मनुज जब हारा॥२३॥
हरसू ब्रह्‌म के धाम पधारे।
श्रमित-भ्रमित जन मन से हारे॥२४॥
तव चरणन परि पूजा करई।
नियत काल तक व्रत अनुसरई॥२५॥
श्रद्धा अरू विश्वास बटोरी।
बांधे तुमहि प्रेम की डोरी॥२६॥
कृपा करहुं तेहि पर करुणाकर।
कष्ट मिटे लौटे प्रमुदित घर॥२७॥
वर्ष-वर्ष तव दर्शन करहीं।
भक्ति भाव श्रद्धा उर भरहीं॥२८॥
तुम व्यापक सबके उर अंतर।
जानहुं भाव कुभाव निरन्तर॥२९॥
मिटे कष्ट नर अति सुख पावे।
जब तुमको उन मध्य बिठावे॥३०॥
करत ध्यान अभ्यास निरन्तर।
तब होइहहिं प्रकाश उर अंतर॥३१॥
देखिहहिं शुद्ध स्वरूप तुम्हारा।
अनुभव गम्य विवेक सहारा॥३२॥
सदा एक-रस जीवन भोगी।
ब्रह्‌म रूप तब होइहहिं योगी॥३३॥
यज्ञ-स्थल तव धाम शुभ्रतर।
हवन-यज्ञ जहं होत निरंतर॥३४॥
सिद्धासन बैठे योगी जन।
ध्यान मग्न अविचल अन्तर्मन॥३५॥
अनुभव करहिं प्रकाश तुम्हारा।
होकर द्वैत भाव से न्यारा॥३६॥
पाठ करत बहुधा सकाम नर।
पूर्ण होत अभिलाष शीघ्रतर॥३७॥
नर-नारी गण युग कर जोरे।
विनवत चरण परत प्रभु तोरे॥३८॥
भूत पिशाच प्रकट होई बोले।
गुप्त रहस्य शीघ्र ही खोले॥३९॥
ब्रह्‌म तेज तव सहा न जाई।
छोड़ देह तब चले पराई॥४०॥
पूर्ण काम हरसू सदा, पूरण कर सब काम।
परम तेज मय बसहुं तुम, भक्तन के उर धाम॥

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