Started in 2005 by Chad Hurley, Jawed Karim and Steve Chan, Youtube is currently world’s most popular video sharing website. From video clips of cats fighting with dogs shot with cellphones to professionally produced movie trailers, the site hosts it all. According to Google, which bought the website in 2006, over 800 million users visit YouTube every month, over three billion hours of videos are watched every month and over 72 hours of video content is uploaded every minute. In the recent years, the website has tried to attract more professional video content producers. It has tied up with several Hollywood studios and gives people a share in the advertisement revenue if they sign up for the Youtube partner programme to produce exclusive content for the website. With its reach and popularity, it has also emerged as a repository of first-person account. For example in the case of 2011 tsunami in Japan, videos shot by amateur people appeared on Youtube minutes after the disaster. At the same time, its growing popularity has forced it to deal with several contentious issues like copyright infringement, which is considered to be rampant on the website as users often upload copied video content without any regard for the rights of original producers.
Friday, 17 May 2013
Thursday, 9 May 2013
New Adf.ly Auto Clicker For Working
Here is another adf.ly bot which is also working without any issue. Recently we shared a different adf.ly bot which is still working like a charm. But some how If you are facing any problem with that bot try using new proxies list, download it from below link. If still there is any problem try this bot. If you are new visitor to our site then kindly use this bot.
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●Download the new adf.ly auto clicker and proxies.
●Run adf.ly auto clicker.
●Select enable proxies.
●Now load the download proxies.
●Now right click on blank space/header of bot and select enter link.
●Finally right click and select start, your links will be clicked automatically.
●Now minimize the bot and let it do its work!
Download Adfly Clicker
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Wednesday, 8 May 2013
आरती श्री साईं जी की Shri Sai Baba Ki Aarti (Arti Sainath Ki), Sai Ram ki Arti
आरती श्री साईं जी की Shri Sai Baba Ki Aarti (Arti Sainath Ki), Sai Ram ki Arti
आरती श्री साईं गुरुवर की, परमानन्द सदा सुरवर की।
जा की कृपा विपुल सुखकारी, दुख शोक संकट भयहारी।
शिरडी में अवतार रचाया, चमत्कार से तत्व दिखाया।
कितने भक्त चरण पर आये, वे सुख शान्ति चिरंतन पाये।
भाव धरै जो मन में जैसा, पावत अनुभव वो ही वैसा।
गुरु की उदी लगवे तन को, समाधान लाभत उस मन को।
साईं नाम सदा जो गावे, सो फल जग में शाश्वत पावे।
गुरुवासर करि पूजा-सेवा, उस पर कृपा करत गुरुदेवा।
राम, कृष्ण, हनुमान रूप में, दे दर्शन, जानत जो मन में।
विविध धर्म के सेवक आते, दर्शन इच्छित फल पाते।
जै बोलो साईं बाबा की, जै बोलो अवधूत गुरु की।
साईंदास आरती को गावै, घर में बसि सुख, मंगल पावे।
Labels: आरती, साईं बाबा
श्री साई चालीसा Shri Sai Chalisa (Sai Baba Chalisa)
पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नवाऊँ मैं।
कैसे शिर्डी साईं आए सारा हाल सुनाऊँ मैं।
कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना।
कहाँ जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली सा रहा बना।
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं।
कोई कहता साईं बाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं।
कोई कहता है मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं।
कोई कहता गोकुल मोहन देवकी नन्दन हैं साईं।
शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साई की करते।
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान।
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊँगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात।
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर।
कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर।
और दिखायी ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर।
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वेसे ही शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान।
दिन दिगन्त में लगा गूँजने, फिर तो साईंजी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम।
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूँ निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुख के बन्धन।
कभी किसी ने माँगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान।
एवमस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान।
स्वयं दुखी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल।
अन्तः करन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल।
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान।
लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो।
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ है घर में मेरे।
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे।
कुलदीपक के ही अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया।
दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूँगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर।
अनुनय विनय बहुत की उसने, चरणों में धरकर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष।
अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर।
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार।
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
साँच को आँच नहीं है कोई, सदा, झूठ की होती हार।
मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस।
मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी।
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी।
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था।
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था।
ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझ सा था।
बाबा के दर्शनों की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साईं जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार।
पावन शिर्डी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की मुरति।
जब से किए हैं दर्शन हमने, दुख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटे और, विपदाओं का हो अन्त गया।
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको सब बाबा से।
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आज्ञा से।
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही सम्बल ले मैं, हँसता जाऊँगा जीवन में।
साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता, जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ।
काशीराम बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था।
मैं साईं का, साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था।
सिलकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में।
स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी अंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ हो हाथ, तिमिर के मारे।
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट के काशी।
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी।
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूट लो इसको, इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई।
लूट पीटकर उसे वहाँ से, कुटिल गये चम्पत हो।
आघातों से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो।
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में।
अनजाने ही उसके मुँह से, निकल पड़ा था साईं।
जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई।
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो।
उन्मादी से इधर उधर तब, बाबा लगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आईं उनको लगे पटकने।
और धधकते अंगारों में, बाबा ने कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डव नृत्य निराला।
समझ गये सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में।
क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ पर, पड़े हुए विस्मय में।
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल हैं।
उसकी ही पीड़ी से पीडि़त, उनका अन्तस्तल है।
इतने में ही विधि ने, अपनी विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई।
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देखा भक्त को, साईं की आँखें भर आई।
शान्त, धीर, गंभीर सिन्धु सा, बाबा का अन्तस्तल।
आज न जाने क्यों रह-रह, हो जाता था चंचल।
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी।
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी।
जब भी और जहाँ भी कोई, भक्त पड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, जाते हैं पलभर में।
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपदग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी।
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिख ईसाई।
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राम रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला।
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना।
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम के कड़ुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी।
सच को स्नेह दिया साईं ने, सबको अतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया।
ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुख क्यों न हो, पलभर में वह दूर टरे
साईं जैसा दाता, अरे कभी नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई।
तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो।
जब तू अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा, बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा।
तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा के पूरी ही करनी होगी।
जंगल जंगल भटक न पागल, और ढूँढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को।
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुख में, सुख में प्रहर आठ हो, साईं का हो गुण गाया।
गिरें संकटों के पर्वत चाहे, या बिजली ही टूट पड़े।
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े।
इस बूढ़े की सुन करामात, तुम हो जावोगे हैरान।
दंग रह गए सुन कर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान।
एक बार शिर्डी में साधु, ढोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर निवासी, जनता को था भरमाया।
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहीं भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन।
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती है दुख से मुक्ति।
अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से, बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से।
लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियाँ हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अतिशय भारी।
जो है संततिहीन यहाँ यदि, मेरी औषधि को खाये।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे और वह मुँह माँगा फल पाये।
औषध मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहाँ आ पायेगा।
दुनिया दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
गर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो।
हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लख लोगों की नादानी।
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक।
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिर्डी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ।
मेरे रहते भोली-भाली, शिर्डी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को
पलभर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में, पहुँचा दूँ जीवन भर को।
तनिक मिल आभास मदारी, क्रूर, कुटिल, अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को।
पलभर में सब खेल बन्द कर, भागा सिर पर रख कर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है क्या अब खैर।
सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में।
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर।
वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तस्तल।
उसकी एक उदासी ही जग को, कर देती है विह्वल।
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ हो जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी हो जाता है।
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के दानव को क्षण भर में।
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है दुनिया में।
गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन हैं आपस में।
ऐसे ही अवतारी साईं, मुत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर।
नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने।
पाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ पाया साईं ने।
सदा याद में मस्त रा मकी, बैठे रहते थे साईं।
पहर आठ ही राम नाम का , भजते रहते थे साईं।
सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सदा यास के भूखे साईं की खातिर थे सभी समान।
स्नेह और श्रद्धा से अपनी , जन को कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे।
कभी कभी मन बहलाने को, बाब बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे।
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द-मन्द हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे।
ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपद विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे।
सुनकर जिनकी करुण कथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शान्ति, उनके उर में भर देते थे।
जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुख सारा हर लेती थी।
धन्य मनुज वे साक्षात दर्शन, जो बाबा साईं के पाये।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये।
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता।
बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता।
गर पकड़ता मैं चरण श्री के नहीं छोड़ता उम्र भर।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर।
श्री मंगलवार व्रत कथा Shri Mangalvar Vrat Katha
श्री मंगलवार व्रत कथा Shri Mangalvar Vrat Katha
मंगलवार के व्रत की महत्ता
हमारा देश भारतवर्ष धर्म-परायण एवं व्रतों का देश है, हमारे यहां वार, मास, संक्रान्ति, तिथि आदि सभी के लिए अलग-अलग व्रत हैं। प्रत्येक व्रत का अलग-अलग महत्त्व और फल है। व्रत न केवल अपने आराध्य देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए, सुख शान्ति की कामना, धन, पति, पुत्र प्राप्ति हेतु बल्कि महाकष्ट, असाध्य रोगों के समूद दमन, अपने पूर्व पापकर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले दुःखों के निवारण हेतु प्रायश्चित्त रूप में भी किये जाते हैं। वास्तव में संसार महासागर में मानव मात्र के जीवन रूपी नौका को पार लगाने वाले, मोह-माया के बंधनों से मुक्त हो भगवान के ध्यान में लग मोक्ष की प्राप्ति में सहायक अगर कोई है तो यह व्रत है।
बीमारी एवं शारीरिक कष्टों को दूर कने लिए विभिन्न प्रकार के व्रतों का उल्लेख हमारे शास्त्रों में किया गया है। मानव को मिलने वाले सुखों-दुःखों का मूल कारण उसके पाप एवं पुण्य कर्मों का फल है। पाप कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले कष्टों को दूर करने, एवं अपने पापों का प्रायश्चित्त व्रत द्वारा ही संभव है। प्रायश्चित्त में दान-उपवास, जप-हवन-उपासना प्रमुख हैं। यह सब कार्य व्रत में ही किये जाते हैं। प्रायश्चित्त करने से पाप और रोग दोनों ही क्षीण हो जाते हैं और जीवन में आरोग्य एवं सौभाग्य की वृद्धि होती है। मंगल, यदि जन्म-लग्न, वर्ष-लग्न, महादशा, प्रत्यन्तर दशा आदि गोचर में अनिष्टकारी हो तो उसकी शांति के लिए मंगलवार का व्रत किया जाता है।
मंगल के प्रदायक देवता का वार है मंगलवार। मंगल के देवता जब प्रसन्न हो जाते हैं तो अपार धन-सम्पत्ति, राज-सुख, निरोगता, ऐश्वर्य, सौभाग्य, पुत्र-पुत्री प्रदान किया करते हैं। युद्ध विवाद में शत्रुओं पर विजय, नौकरी में उच्च पद की प्राप्ति यह सभी मंगल की कृपा से ही मिलता है। दुर्भाग्य वश अगर मंगल देवता रुष्ट हो जाएं, अगर मंगल देवता नीच स्थान में हो अर्थवा मंगल की दशा बदल कर क्रूर हो जाए तो यह देव सुख, वैभव, भोग, सन्तान तथा धन को नष्ट कर दिया करता है। सुख-वैभव, सन्तान की प्राप्ति तथा दुःख और कष्टों के निवारण हेतु मंगलवार का व्रत करना चाहिए, स्वभाव की क्रूरता, रक्त विकार, सन्तान की चिन्ता, सन्तान को कष्ट, कर्जे को चुकाना, धन की प्राप्ति न होना आदि निवारण हेतु मंगलवार का व्रत अति उत्तम एवं श्रेष्ठ साधन है। श्री हनुमान जी की उपासना से वाचिक, मानसिक और संसर्ग जनित पाप, उप-पाप तथा महापाप से दूर होकर सुख, धन तथा यश लाभ होता है।
सभी प्रकार के सुख-ऐश्वर्य, रक्त विकार, राज दरबार में सम्मान, उच्च पद प्राप्ति एवं पुत्र प्राप्ति के लिए मंगलवार का व्रत किया जाता है।
मंगलवार के व्रत की विधि
मंगलवार के व्रत को प्रत्येक स्त्री-पुरुष कर सकता है। मंगलवार के दिन प्रातःकाल उठ कर अपामार्ग या ओंगा की दातुन करके तिल और आंवले के चूर्ण को लगा कर नदी, तालाब अथवा घर में स्नान करें। स्वच्छ लाल रंग के वस्त्र धारण कर लाल चावलों का अष्ट दल कमल बनावें उस पर स्वर्ण की मूर्ति बनवाकर प्रतिष्ठादि करें। लाल अक्षत, लाल पुष्प, लाल चन्दन एवं लाल धान्य गेहूं सूजी आदि के बने हुए पदार्थों का भोग लगावें, घर को गोबर से लीप कर स्थान पवित्र करें फिर पत्नी सहित मंगल देवता का पूजन करें। मंगल देवता का ध्यान करें एवं उसके इक्कीस नामों का जाप करें जो निम्न हैं-
मंगल देवता के इक्कीस नाम
१. मंगल २. भूमिपात्र ३. ऋणहर्ता ४. धनप्रदा ५. स्थिरासन ६. महाकाय ७. सर्वकामार्थसाधक ८. लोहित ९. लोहिताज्ञ १०. सामगानंकृपाकर ११. धरात्मज १२. कुज १३. भौम १४. भूमिजा १५. भूमिनन्दन १६. अंगारक १७. यम १८. सर्वरोगहारक १९. वृष्टिकर्ता २०. पापहर्ता २१. सब काम फल दाता
नाम जब के साथ सुख सौभाग्य के लिए प्रार्थना करें। पूजन की जगह पर घी की चार बत्तियों का चौमुखा दीपक जलावें। इक्कीस दिन मंगलवार का व्रत करें और इक्कीस लड्डुओं का भोग लगाकर वेद के ज्ञाता सुपात्र ब्राह्मण को दें। दिन में केवल एक बार ही भोजन करें।
इक्कीस व्रतों के अथवा इच्छा पूर्ति होने परे मंगलवार के व्रत का उद्यापन करें। उद्यापन के अन्त में इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति स्वर्णदान करें। आचार्य को सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर लाल बैल का दान करें फिर स्वयं भोजन करें।
मंगलवार के दिन स्वाति नक्षत्र हो तो उस दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर मंगलयंत्र का निर्माण करें या मंगल देव की मूर्ति बनावें, मंगल की मूर्ति का लाल पुष्पों से पूजन करें, लाल वस्त्र पहनावें और गुड़, घी, गेहूं के बने पदार्थों का भोग लगावें। रात्रि के समय एक बार भोजन करें। पृथ्वी पर शयन करें, इस प्रकार मंगलवार का व्रत करें और सातवें मंगलवार को मंगल की स्वर्ण की मूर्ति का निर्माण कर उसका पूजन अर्चन करें, दो लाल वस्त्रों से आच्छादित करें, लाल चन्दन, षटगंध, धूप, पुष्प, सदचावल, दीप आदि से पूजा करें, सफेद कसार का भोग लगावें। तिल, चीनी, घी का सांकल्य बना कर 'ओम कुजाय नमः स्वाहा' से हवन करें। हवन और पूजा के बाद ब्राह्मण को भोजन करावें और मंगल की मूर्ति ब्राह्मण को दक्षिणा में दें तो मंगल ग्रह जनित सभी अनिष्टों की समाप्ति हो व्रत के प्रभाव से सुख-शान्ति यश और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।
मंगलवार की पूजा करने, व्रत करने, मंगलवार की कथा सुनने, आरती करने और प्रसाद भक्तों में बाटने से सब प्रकार की विपत्ति नष्ट हो कर सुख मिलता है, और जीवन पर्यन्त पुत्र-पौत्र और धन आदि से युक्त हो कर अन्त में विष्णु लोक को जाता है और सभी प्रकार के ऋण से उऋण हो कर धनलक्ष्मी की प्राप्ति होती है। स्त्री तथा कन्याओं को यह व्रत विशेष रूप से लाभप्रद है। उनके लिए पति का अखण्ड सुख संपत्ति तथा आयु की प्राप्ति होती है और वह सदा सुहागिन रहती हैं अर्थात् कभी भी विधवा नहीं होती हैं। स्त्रियों को मंगलवार के दिन पार्वती मंगल, गौरी पूजन करके मंगलवार व्रत विधि कथा अथवा मंगला गौरी व्रत कथा सुननी चाहिए। यह कथा सर्वकल्याण को देने वाली होती है।
मंगलवार व्रत कथा
व्यास जी ने कहा- एक बार नैमिषारण्य तीर्थ में अस्सी हजार मुनि एकत्र हो कर पुराणों के ज्ञाता श्री सूत जी से पूछने लगे- हे महामुने! आपने हमें अनेक पुराणों की कथाएं सुनाई हैं, अब कृपा करके हमें ऐसा व्रत और कथा बतायें जिसके करने से सन्तान की प्राप्ति हो तथा मनुष्यों को रोग, शोक, अग्नि, सर्व दुःख आदि का भय दूर हो क्योंकि कलियुग में सभी जीवों की आयु बहुत कम है। फिर इस पर उन्हें रोग-चिन्ता के कष्ट लगे रहेंगे तो फिर वह श्री हरि के चरणों में अपना ध्यान कैसे लगा सकेंगे।
श्री सूत जी बोले- हे मुनियों! आपने लोक कल्याण के लिए बहुत ही उत्तम बात पूछी है। एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से लोक कल्याण के लिए यही प्रश्न किया था। भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद तुम्हारे सामने कहता हूं, ध्यान देकर सुनो।
एक समय पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्ण जी बैठे हुए थे। तब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया- हे प्रभो, नन्दनन्द, गोविन्द! आपने मेरे लिए अनेकों कथायें सुनाई हैं, आज आप कृपा करके ऐसा व्रत या कथा सुनायें जिसके करने से मनुष्य को रोग-चिन्ता का भय समाप्त हो और उसको पुत्र की प्राप्ति हो, हे प्रभो, बिना पुत्र के जीवन व्यर्थ है, पुत्र के बिना मनुष्य नरकगामी होता है, पुत्र के बिना मनुष्य पितृ-ऋण से छुटकारा नहीं पा सकता और न ही उसका पुन्नग नामक नरक से उद्धार हो सकता है। अतः पुत्र दायक व्रत बतलाएं।
श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे राजन् ! मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, आप उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
कुण्डलपुर नामक एक नगर था, उसमें नन्दा नामक एक ब्राह्मण रहता था। भगवान की कृपा से उसके पास सब कुछ था, फिर भी वह दुःखी था। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण की स्त्री सुनन्दा के कोई सन्तान न थी। सुनन्दा पतिव्रता थी। भक्तिपूर्वक श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। मंगलवार के दिन व्रत करके अन्त में भोजन बना कर हनुमान जी का भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन करती थी। एक बार मंगलवार के दिन ब्राह्मणी गृह कार्य की अधिकता के कारण हनुमान जी को भोग न लगा सकी, तो इस पर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने कुछ भी नहीं खाया और अपने मन में प्रण किया कि अब तो अगले मंगलवार को ही हनुमान जी का भोग लगाकर अन्न-जल ग्रहण करूंगी।
ब्राह्मणी सुनन्दा प्रतिदिन भोजन बनाती, श्रद्धापूर्वक पति को खिलाती, परन्तु स्वयं भोजन नहीं करती और मन ही मन श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। इसी प्रकार छः दिन गुजर गए, और ब्राह्मणी सुनन्दा अपने निश्चय के अनुसार भूखी प्यासी निराहार रही, अगले मंगलवार को ब्राह्मणी सुनन्दा प्रातः काल ही बेहोश होकर गिर पड़ी।
ब्राह्मणी सुनन्दा की इस असीम भक्ति के प्रभाव से श्री हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए और प्रकट होकर बोले- सुनन्दा ! मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू उठ और वर मांग।
सुनन्दा अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी को देखकर आनन्द की अधिकता से विह्वल हो श्री हनुमान जी के चरणों में गिरकर बोली- 'हे प्रभु, मेरी कोई सन्तान नहीं है, कृपा करके मुझे सन्तान प्राप्ति का आशीर्वाद दें, आपकी अति कृपा होगी।'
श्री महावीर जी बोले -'तेरी इच्छा पूर्ण होगी। तेरे एक कन्या पैदा होगी उसके अष्टांग प्रतिदिन सोना दिया करेंगे।' इस प्रकार कह कर श्री महावीर जी अन्तर्ध्यान हो गये। ब्राह्मणी सुनन्दा बहुत हर्षित हुई और सभी समाचार अपने पति से कहा, ब्राह्मण देव कन्या का वरदान सुनकर कुछ दुःखी हुए, परन्तु सोना मिलने की बात सुनी तो बहुत प्रसन्न हुए। विचार किया कि ऐसी कन्या के साथ मेरी निर्धनता भी समाप्त हो जाएगी।
श्री हनुमान जी की कृपा से वह ब्राह्मणी गर्भवती हुई और दसवें महीने में उसे बहुत ही सुन्दर पुत्री प्राप्त हुई। यह बच्ची, अपने पिता के घर में ठीक उसी तरह से बढ़ने लगी, जिस प्रकार शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ ता है। दसवें दिन ब्राह्मण ने उस बालिका का नामकरण संस्कार कराया, उसके कुल पुरोहित ने उस बालिका का नाम रत्नावली रखा, क्योंकि यह कन्या सोना प्रदान किया करती थी, इस कन्या ने पूर्व-जन्म में बड़े ही विधान से मंगलदेव का व्रत किया था।
रत्नावली का अष्टांग बहुत सा सोना देता था, उस सोने से नन्दा ब्राह्मण बहुत ही धनवान हो गय। अब ब्राह्मणी भी बहुत अभिमान करने लगी थी। समय बीतता रहा, अब रत्नावली दस वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन जब नन्दा ब्राह्मण प्रसन्न चित्त था, तब सुनन्दा ने अपने पति से कहा- 'मेरी पुत्री रत्नावली विवाह के योग्य हो गयी है, अतः आप कोई सुन्दर तथा योग्य वर देखकर इसका विवाह कर दें।' यह सुन ब्राह्मण बोला- 'अभी तो रत्नावली बहुत छोटी है' । तब ब्राह्मणी बोली- 'शास्त्रों की आज्ञा है कि कन्या आठवें वर्ष में गौरी, नौ वर्ष में राहिणी, दसवें वर्ष में कन्या इसके पश्चात रजस्वला हो जाती है। गौरी के दान से पाताल लोक की प्राप्ति होती है, राहिणी के दान से बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है, कन्या के दान से इन्द्रलोक में सुखों की प्राप्ति होती है। अगर हे पतिदेव! रजस्वला का दान किया जाता है तो घोर नर्क की प्राप्ति होती है।'
इस पर ब्राह्मण बोला -'अभी तो रत्नावली मात्र दस ही वर्ष की है और मैंने तो सोलह-सोलह साल की कन्याओं के विवाह कराये हैं अभी जल्दी क्या है।' तब ब्राह्मणी सुनन्दा बोली- ' आपको तो लोभ अधिक हो गया लगता है। शास्त्रों में कहा गया है कि माता-पिता और बड़ा भाई रजस्वला कन्या को देखते हैं तो वह अवश्य ही नरकगामी होते हैं।'
तब ब्राह्मण बोला-'अच्छी बात है, कल मैं अवश्य ही योग्य वर की तलाश में अपना दूत भेजूंगा।' दूसरे दिन ब्राह्मण ने अपने दूत को बुलाया और आज्ञा दी कि जैसी सुन्दर मेरी कन्या है वैसा ही सुन्दर वर उसके लिए तलाश करो। दूत अपने स्वामी की आज्ञा पाकर निकल पड़ा। पम्पई नगर में उसने एक सुन्दर लड के को देखा। यह बालक एक ब्राह्मण परिवार का बहुत गुणवान पुत्र था, इसका नाम सोमेश्वर था। दूत ने इस सुन्दर व गुणवान ब्राह्मण पुत्र के बारे में अपने स्वामी को पूर्ण विवरण दिया। ब्राह्मण नन्दा को भी सोमेश्वर अच्छा लगा और फिर शुभ मुहूर्त में विधिपूर्वक कन्या दान करके ब्राह्मण-ब्राह्मणी संतुष्ट हुए।
परन्तु! ब्राह्मण के मन तो लोभ समाया हुआ था। उसने कन्यादान तो कर दिया था पर वह बहुत खिन्न भी था। उसने विचार किया कि रत्नावली तो अब चली जावेगी, और मुझे इससे जो सोना मिलता था, वह अब मिलेगा नहीं। मेरे पास जो धन था कुछ तो इसके विवाह में खर्च हो गया और जो शेष बचा है वह भी कुछ दिनों पश्चात समाप्त हो जाएगा। मैंने तो इसका विवाह करके बहुत बड़ी भूल कर दी है। अब कोई ऐसा उपाय हो कि रत्नावली मेरे घर में ही बनी रहे, अपनी ससुराल ना जावे। लोभ रूपी राक्षस ब्राह्मण के मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। रात भर अपनी शैय्या पर बेचैनी से करवटें बदलते-बदलते उसने एक बहुत ही क्रूर निर्णय लिया। उसने विचार किया कि जब रत्नावली को लेकर उसका पति सोमेश्वर अपने घर के लिए जाएगा तो वह मार्ग में छिप कर सोमेश्वर का वध कर देगा और अपनी लड की को अपने घर ले आवेगा, जिससे नियमित रूप से उसे सोना भी मिलता रहेगा और समाज का कोई मनुष्य उसे दोष भी नहीं दे सकेगा।
प्रातःकाल हुआ तो, नन्दा और सुनन्दा ने अपने जमाई तथा लड की को बहुत सारा धन देकर विदा किया। सोमेश्वर अपनी पत्नी रत्नावली को लेकर ससुराल से अपने घर की तरफ चल दिया।
ब्राह्मण नन्दा महालोभ के वशीभूत हो अपनी मति खो चुका था। पाप-पुण्य को उसे विचार न रहा था। अपने भयानक व क्रूर निर्णय को कार्यरूप देने के लिए उसने अपने दूत को मार्ग में अपने जमाई का वध करने के लिए भेज दिया था ताकि रत्नावली से प्राप्त होने वाला सोना उसे हमेशा मिलता रहे और वो कभी निर्धन न हों ब्राह्मण के दूत ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए उसके जमाई सोमेश्वर का मार्ग में ही वध कर दिया। समाचार प्राप्त कर ब्राह्मण नन्दा मार्ग में पहुंचा और रुदन करती अपनी पुत्री रत्नावली से बोला-'हे पुत्री! मार्ग में लुटेरों ने तेरे पति का वध कर दिया है। भगवान की इच्छा के आगे किसी का कोई वश नहीं चलता है। अब तू घर चल, वहां पर ही रहकर शेष जीवन व्यतीत करना। जो भाग्य में लिखा है वही होगा।'
अपने पति की अकाल मृत्यु से रत्नावली बहुत दुःखी हुई। करुण क्रन्दन व रुदन करते हुए अपने पिता से बोली- 'हे पिताजी! इस संसार में जिस स्त्री का पति नहीं है उसका जीना व्यर्थ है, मैं अपने पति के साथ ही अपने शरीर को जला दूंगी और सती होकर अपने इस जन्म को, माता-पिता के नाम को तथा सास-ससुर के यश को सार्थक करूंगी।'
ब्राह्मण नन्दा अपनी पुत्री रत्नावली के वचनों को सुनकर बहुत दुःखी हुआ। विचार करने लगा- मैंने व्यर्थ ही जमाई वध का पाप अपने सिर लिया। रत्नावली तो उसके पीछे अपने प्राण तक देने को तैयार है। मेरा तो दोनों तरफ से मरण हो गया। धन तो अब मिलेगा नहीं, जमाई वध के पाप के फलस्वरूप यम यातना भी भुगतनी पड़ेगी। यह सोचकर वह बहुत खिन्न हुआ।
सोमेश्वर की चिता बनाई गई। रत्नावली सती होने की इच्छा से अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर चिता में बैठ गई। जैसे ही सोमेश्वर की चिता को अग्नि लगाई गई वैसे ही प्रसन्न हो मंगलदेव वहां प्रकट हुए और बोले-'हे रत्नावली! मैं तेरी पति भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू वर मांग।' रत्नावली ने अपने पति का जीवनदान मांगा। तब मंगल देव बोले-'रत्नावली! तेरा पति अजर-अमर है। यह महाविद्वान भी होगा। और इसके अतिरिक्त तेरी जो इच्छा हो वर मांग।'
तब रत्नावली बोली- 'हे ग्रहों के स्वामी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिए कि जो भी मनुष्य मंगलवार के दिन प्रातः काल लाल पुष्प, लाल चन्दन से पूजा करके आपका स्मरण करे उसको रोग-व्याधि न हो, स्वजनों का कभी वियोग न हो, सर्प, अग्नि तथा शत्रुओं का भय न रहे, जो स्त्री मंगलवार का व्रत करे, वह कभी विधवा न हो।''
मंगलदेव -'तथास्तु' कह कर अन्तर्ध्यान हो गये।
सोमेश्वर मंगलदेव की कृपा से जीवित हो उठा। रत्नावली अपने पति को पुनः प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई और मंगल देव का व्रत प्रत्येक मंगलवार को करके व्रतराज और मंगलदेव की कृपा से इस लोक में सुख-ऐश्वर्य को भोगते हुए अन्त में अपने पति के साथ स्वर्ग लोक को गई।
॥इति श्री मंगलवार व्रत कथा॥
मंगलवार व्रत की आरती
श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा Shri Brihaspativar Vrat Katha
श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा Shri Brihaspativar Vrat Katha
पूजा विधि
बृहस्पतिवार को जो स्त्री-पुरुष व्रत करें उनको चाहिए कि वह दिन में एक ही समय भोजन करें क्योंकि बृहस्पतेश्वर भगवान का इस दिन पूजन होता है भोजन पीले चने की दाल आदि का करें परन्तु नमक नहीं खावें और पीले वस्त्र पहनें, पीले ही फलों का प्रयोग करें, पीले चन्दन से पूजन करें, पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुननी चाहिए। इस व्रत को करने से मन की इच्छाएं पूरी होती हैं और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं तथा धन, पुत्र विद्या तथा मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख शान्ति मिलती है, इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक, सब स्त्री व पुरुषों के लिए है। इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय तन, मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो बृहस्पतिदेव की प्रार्थना करनी चाहिए। उनकी इच्छाओं को बृहस्पतिदेव अवश्य पूर्ण करते हैं ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।
अथ श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा
भारतवर्ष में एक राजा राज्य करता था वह बड़ा प्रतापी और दानी था। वह नित्य गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता था। यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न ही गरीबों को दान देती न ही भगवान का पूजन करती थी और राजा को भी दान देने से मना किया करती थी।
एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे तो रानी महल में अकेली थी। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु वेष में राजा के महल में भिक्षा के लिए गए और भिक्षा मांगी रानी ने भिक्षा देने से इन्कार किया और कहा- हे साधु महाराज मैं तो दान पुण्य से तंग आ गई हूं। मेरा पति सारा धन लुटाता रहता है। मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए फिर न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
साधु ने कहा- देवी तुम तो बड़ी अजीब हो। धन, सन्तान तो सभी चाहते हैं। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होने चाहिए। यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो भूखों को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ। जो निर्धन अपनी कुंवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते उनका विवाह करा दो। ऐसे और कई काम हैं जिनके करने से तुम्हारा यश लोक-परलोक में फैलेगा। परन्तु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली- महाराज आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बांटती फिरूं। साधु ने उत्तर दिया यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तथास्तु! तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर लीपकर पीली मिट्टी से अपना सिर धोकर स्नान करना, भट्टी चढ़ाकर कपड़े धोना, ऐसा करने से आपका सारा धन नष्ट हो जाएगा। इतना कहकर वह साधु महाराज वहां से आलोप हो गये।
जैसे वह साधु कह कर गया था रानी ने वैसा ही किया। छः बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका समस्त धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों तरसने लगे। सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगे। तब वह राजा रानी से कहने लगा कि तुम यहां पर रहो मैं दूसरे देश में जाउं क्योंकि यहां पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं इसलिए कोई कार्य नहीं कर सकता। देश चोरी परदेश भीख बराबर है ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया वहां जंगल को जाता और लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेंचता इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा।
एक दिन दुःखी होकर जंगल में एक पेड के नीचे आसन जमाकर बैठ गया। वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा। बृहस्पतिवार का दिन था। एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए। वह साधु वेष में स्वयं बृहस्पति देवता थे। लकड हारे के सामने आकर बोले- हे लकड हारे! इस सुनसान जंगल में तू चिन्ता मग्न क्यों बैठा है? लकड हारे ने दोनों हाथ जोड कर प्रणाम किया और उत्तर दिया- महात्मा जी! आप सब कुछ जानते हैं मैं क्या कहूं। यह कहकर रोने लगा और साधु को आत्मकथा सुनाई। महात्मा जी ने कहा- तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति के दिन वीर भगवान का निरादर किया है जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी। अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जायेंगे और भगवान पहले से भी अधिक सम्पत्ति देंगे। तुम बृहस्पति के दि कथा किया करो। दो पैसे के चने मुनक्का मंगवाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद बांटकर आप भी ग्रहण करो। ऐसा करने से भगवान तुम्हारी सब कामनायें पूरी करेंगे।
साधु के ऐसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला- हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता जिससे भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे उसकी खबर मंगा सकूं। साधु ने कहा- हे लकड हारे! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पति के दिन तुम रोजाना की तरह लकडि यां लेकर शहर को जाओ। तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा जिससे तुम भली-भांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा। इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी भी शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना गुड आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए परन्तु जब दुबारा गुरुवार का दिन आया तो बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए।
उस दिन से उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनावे न आग जलावे समस्त जनता मेरे यहां भोजन करने आवे। इस आज्ञा को जो न मानेगा उसके लिए फांसी की सजा दी जाएगी। इस तरह की घोषणा सम्पूर्ण नगर में करवा दी गई। राजा की आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा इसलिए राजा उसको अपने साथ घर लिवा ले गए और ले जाकर भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह वहां पर दिखाई न दिया। रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है। उसी समय सिपाहियों को बुलाकर उसको कारागार में डलवा दिया। जब लकड हारा कारागार में पड गया और बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है और उसी साधु को याद करने लगा जो कि जंगल में मिला था। उसी समय तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हो और उसकी दशा को देखकर कहने लगे- अरे मूर्ख! तूने बृहस्पतिदेव की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे। उनसे तू बृहस्पतिदेव की पूजा करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। बृहस्पति के दिन उसे चार पैसे मिले। लकड हारे ने कथा कही उसी रात्रि को बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा- हे राजा! तूमने जिस आदमी को कारागार में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है। वह राजा है उसे छोड देना। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका है। अगर तू ऐसा नही करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा। इस तरह रात्रि के स्वप्न को देखकर राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा लकड हारे को योग्य सुन्दर वस्त्र आभूषण देकर विदा कर बृहस्पतिदेव की आज्ञानुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया। राजा जब अपने नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत सी धर्मशाला मन्दिर आदि बन गई हैं। राजा ने पूछा यह किसका बाग और धर्मशाला है तब नगर के सब लोग कहने लगे यह सब रानी और बांदी के हैं। तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने बांदी से कहा कि- हे दासी! देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड गए थे। हमारी ऐसी हालत देखकर वह लौट न जायें इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। राजा आए तो उन्हें अपने साथ लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी रानी से पूछा कि यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है तब उन्होंने कहा- हमें यह सब धन बृहस्पतिदेव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।
राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं परन्तु मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कहानी कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा। अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कहानी कहता। एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आवें। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां को चलने लगा। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं उन्हें रोककर राजा कहने लगा- अरे भाइयों! मेरी बृहस्पतिदेव की कथा सुन लो। वे बोले - लो! हमारा तो आदमी कर गया है इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु कुछ आदमी बोले- अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली और जब कथा आधी हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हो गई तो राम-राम करके मनुष्य उठकर खड़ा हो गया।
आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देख और उससे बोला- अरे भइया! तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो। किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनाना। इस तरह राजा आगे चलने लगा। राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा उसके पेट में बड़ी जोर का दर्द होने लगा। उस समय उसकी मां रोटी लेकर आई उसने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा और बेटे ने सभी हाल कह दिया तो बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली कि मैं तेरी कथा सुनूंगी तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही कहना। राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही जिसके सुनते ही वह बैल उठ खड़ हुए तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया। राजा अपनी बहन के घर पहुंचा। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा- ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो, मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहिन बोली- हे भैया! यह देश ऐसा ही है कि पहले यहां लोग भोजन करते हैं बाद में अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में हो तो देख आउं। वह ऐसा कहकर देखने चली गई परन्तु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो अतः वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उनके यहां तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर उसका लड का ठीक हो गया अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी।
एक रोज राजा ने अपनी बहन से कहा कि हे बहन! हम अपने घर को जायेंगे। तुम भी तैयार हो जाओ। राजा की बहन ने अपनी सास से कहा। सास ने कहा हां चली जा। परन्तु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है। बहन ने अपने भइया से कहा- हे भइया! मैं तो चलूंगी पर कोई बालक नहीं जाएगा। राजा बोला जब कोई बालक नहीं चलेगा, तब तुम क्या करोगी। बड़े दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा हम निरवंशी हैं। हमारा मुंह देखने का धर्म नहीं है और कुछ भोजन आदि नहीं किया। रानी बोली- हे प्रभो! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। हमें औलाद अवश्य देंगे। उसी रात को बृहस्पतिदेव ने राजा से स्वप्न में कहा- हे राजा उठ। सभी सोच त्याग दे तेरी रानी गर्भ से है। राजा की यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने में उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला- हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती हे बिना कहे नहीं रह सकती। जब मेरी बहिन आवे तुम उससे कुछ कहना मत। रानी ने सुनकर हां कर दिया।
जब राजा की बहिन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, तभी रानी ने कहा- घोड़ा चढ कर तो नहीं आई, गधा चढ़ी आई। राजा की बहन बोली- भाभी मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती। बृहस्पतिदेव ऐसे ही हैं, जैसी जिसके मन में कामनाएं हैं, सभी को पूर्ण करते हैं, जो सदभावनापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ ता है अथवा सुनता है दूसरो को सुनाता है बृहस्पतिदेव उसकी मनोकामना पूर्ण करते हैं।
भगवान बृहस्पतिदेव उसकी सदैव रक्षा करते हैं संसार में जो मनुष्य सदभावना से भगवान जी का पूजन व्रत सच्चे हृदय से करते हैं तो उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने उनकी कथा का गुणगान किया तो उनकी सभी इच्छायें बृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की थीं। इसलिए पूर्ण कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए। हृदय से उसका मनन करते हुए जयकारा बोलना चाहिए।
॥ बोलो बृहस्पतिदेव की जय। भगवान विष्णु की जय॥
बृहस्पतिदेव की कथा
प्राचीन काल में एक ब्राह्मण रहता था, वह बहुत निर्धन था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत मलीनता के साथ रहती थी। वह स्नान न करती, किसी देवता का पूजन न करती, इससे ब्राह्मण देवता बड़े दुःखी थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे किन्तु उसका कुछ परिणाम न निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्मण की स्त्री के कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ। कन्या बड़ी होने पर प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाप व बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। अपने पूजन-पाठ को समाप्त करके विद्यालय जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। तब ये जौ स्वर्ण के जो जाते लौटते समय उनको बीन कर घर ले आती थी।
एक दिन वह बालिका सूप में उस सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि उसके पिता ने देख लिया और कहा - हे बेटी! सोने के जौ के लिए सोने का सूप होना चाहिए। दूसरे दिन बृहस्पतिवार था इस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करके कहा- मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो। बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी जब लौटकर जौ बीन रही थी तो बृहस्पतिदेव की कृपा से सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उसमें जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है कि वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उस समय उस शहर का राजपुत्र वहां से होकर निकला। इस कन्या के रूप और कार्य को देखकर मोहित हो गया तथा अपने घर आकर भोजन तथा जल त्याग कर उदास होकर लेट गया। राजा को इस बात का पता लगा तो अपने प्रधानमंत्री के साथ उसके पास गए और बोले- हे बेटा तुम्हें किस बात का कष्ट है? किसी ने अपमान किया है अथवा और कारण हो सो कहो मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो। अपने पिता की राजकुमार ने बातें सुनी तो वह बोला- मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है परन्तु मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हूं जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। यह सुनकर राजा आश्चर्य में पड ा और बोला- हे बेटा! इस तरह की कन्या का पता तुम्हीं लगाओ। मैं उसके साथ तेरा विवाह अवश्य ही करवा दूंगा। राजकुमार ने उस लड की के घर का पता बतलाया। तब मंत्री उस लड की के घर गए और ब्राह्मण देवता को सभी हाल बतलाया। ब्राह्मण देवता राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने के लिए तैयार हो गए तथा विधि-विधान के अनुसार ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।
कन्या के घर से जाते ही पहले की भांति उस ब्राह्मण देवता के घर में गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री के पास गए। बेटी ने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और अपनी मां का हाल पूछा। तब ब्राह्मण ने सभी हाल कहा। कन्या ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सारा हाल कहा तो लड की बोली- हे पिताजी! आप माताजी को यहां लिवा लाओ। मैं उसे विधि बता दूंगी जिससे गरीबी दूर हो जाए। वह ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर पहुंचे तो अपनी मां को समझाने लगी- हे मां तुम प्रातःकाल प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जावेगी। परन्तु उसकी मांग ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठन को खा लिया। इससे उसकी पुत्री को भी बहुत गुस्सा आया और एक रात को कोठरी से सभी सामान निकाल दिया और अपनी मां को उसमें बंद कर दिया। प्रातःकाल उसे निकाला तथा स्नानादि कराके पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई और फिर प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसके मां बाप बहुत ही धनवान और पुत्रवान हो गए और बृहस्पतिजी के प्रभाव से इस लोक के सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुए।
सब बोलो विष्णु भगवान की जय। बोलो बृहस्पति देव भगवान की जय
पूजा विधि
बृहस्पतिवार को जो स्त्री-पुरुष व्रत करें उनको चाहिए कि वह दिन में एक ही समय भोजन करें क्योंकि बृहस्पतेश्वर भगवान का इस दिन पूजन होता है भोजन पीले चने की दाल आदि का करें परन्तु नमक नहीं खावें और पीले वस्त्र पहनें, पीले ही फलों का प्रयोग करें, पीले चन्दन से पूजन करें, पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुननी चाहिए। इस व्रत को करने से मन की इच्छाएं पूरी होती हैं और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं तथा धन, पुत्र विद्या तथा मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख शान्ति मिलती है, इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक, सब स्त्री व पुरुषों के लिए है। इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय तन, मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो बृहस्पतिदेव की प्रार्थना करनी चाहिए। उनकी इच्छाओं को बृहस्पतिदेव अवश्य पूर्ण करते हैं ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।
अथ श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा
भारतवर्ष में एक राजा राज्य करता था वह बड़ा प्रतापी और दानी था। वह नित्य गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता था। यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न ही गरीबों को दान देती न ही भगवान का पूजन करती थी और राजा को भी दान देने से मना किया करती थी।
एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे तो रानी महल में अकेली थी। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु वेष में राजा के महल में भिक्षा के लिए गए और भिक्षा मांगी रानी ने भिक्षा देने से इन्कार किया और कहा- हे साधु महाराज मैं तो दान पुण्य से तंग आ गई हूं। मेरा पति सारा धन लुटाता रहता है। मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए फिर न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
साधु ने कहा- देवी तुम तो बड़ी अजीब हो। धन, सन्तान तो सभी चाहते हैं। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होने चाहिए। यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो भूखों को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ। जो निर्धन अपनी कुंवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते उनका विवाह करा दो। ऐसे और कई काम हैं जिनके करने से तुम्हारा यश लोक-परलोक में फैलेगा। परन्तु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली- महाराज आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बांटती फिरूं। साधु ने उत्तर दिया यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तथास्तु! तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर लीपकर पीली मिट्टी से अपना सिर धोकर स्नान करना, भट्टी चढ़ाकर कपड़े धोना, ऐसा करने से आपका सारा धन नष्ट हो जाएगा। इतना कहकर वह साधु महाराज वहां से आलोप हो गये।
जैसे वह साधु कह कर गया था रानी ने वैसा ही किया। छः बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका समस्त धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों तरसने लगे। सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगे। तब वह राजा रानी से कहने लगा कि तुम यहां पर रहो मैं दूसरे देश में जाउं क्योंकि यहां पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं इसलिए कोई कार्य नहीं कर सकता। देश चोरी परदेश भीख बराबर है ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया वहां जंगल को जाता और लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेंचता इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा।
एक दिन दुःखी होकर जंगल में एक पेड के नीचे आसन जमाकर बैठ गया। वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा। बृहस्पतिवार का दिन था। एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए। वह साधु वेष में स्वयं बृहस्पति देवता थे। लकड हारे के सामने आकर बोले- हे लकड हारे! इस सुनसान जंगल में तू चिन्ता मग्न क्यों बैठा है? लकड हारे ने दोनों हाथ जोड कर प्रणाम किया और उत्तर दिया- महात्मा जी! आप सब कुछ जानते हैं मैं क्या कहूं। यह कहकर रोने लगा और साधु को आत्मकथा सुनाई। महात्मा जी ने कहा- तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति के दिन वीर भगवान का निरादर किया है जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी। अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जायेंगे और भगवान पहले से भी अधिक सम्पत्ति देंगे। तुम बृहस्पति के दि कथा किया करो। दो पैसे के चने मुनक्का मंगवाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद बांटकर आप भी ग्रहण करो। ऐसा करने से भगवान तुम्हारी सब कामनायें पूरी करेंगे।
साधु के ऐसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला- हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता जिससे भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे उसकी खबर मंगा सकूं। साधु ने कहा- हे लकड हारे! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पति के दिन तुम रोजाना की तरह लकडि यां लेकर शहर को जाओ। तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा जिससे तुम भली-भांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा। इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी भी शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना गुड आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए परन्तु जब दुबारा गुरुवार का दिन आया तो बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए।
उस दिन से उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनावे न आग जलावे समस्त जनता मेरे यहां भोजन करने आवे। इस आज्ञा को जो न मानेगा उसके लिए फांसी की सजा दी जाएगी। इस तरह की घोषणा सम्पूर्ण नगर में करवा दी गई। राजा की आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा इसलिए राजा उसको अपने साथ घर लिवा ले गए और ले जाकर भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह वहां पर दिखाई न दिया। रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है। उसी समय सिपाहियों को बुलाकर उसको कारागार में डलवा दिया। जब लकड हारा कारागार में पड गया और बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है और उसी साधु को याद करने लगा जो कि जंगल में मिला था। उसी समय तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हो और उसकी दशा को देखकर कहने लगे- अरे मूर्ख! तूने बृहस्पतिदेव की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे। उनसे तू बृहस्पतिदेव की पूजा करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। बृहस्पति के दिन उसे चार पैसे मिले। लकड हारे ने कथा कही उसी रात्रि को बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा- हे राजा! तूमने जिस आदमी को कारागार में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है। वह राजा है उसे छोड देना। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका है। अगर तू ऐसा नही करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा। इस तरह रात्रि के स्वप्न को देखकर राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा लकड हारे को योग्य सुन्दर वस्त्र आभूषण देकर विदा कर बृहस्पतिदेव की आज्ञानुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया। राजा जब अपने नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत सी धर्मशाला मन्दिर आदि बन गई हैं। राजा ने पूछा यह किसका बाग और धर्मशाला है तब नगर के सब लोग कहने लगे यह सब रानी और बांदी के हैं। तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने बांदी से कहा कि- हे दासी! देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड गए थे। हमारी ऐसी हालत देखकर वह लौट न जायें इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। राजा आए तो उन्हें अपने साथ लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी रानी से पूछा कि यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है तब उन्होंने कहा- हमें यह सब धन बृहस्पतिदेव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।
राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं परन्तु मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कहानी कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा। अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कहानी कहता। एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आवें। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां को चलने लगा। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं उन्हें रोककर राजा कहने लगा- अरे भाइयों! मेरी बृहस्पतिदेव की कथा सुन लो। वे बोले - लो! हमारा तो आदमी कर गया है इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु कुछ आदमी बोले- अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली और जब कथा आधी हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हो गई तो राम-राम करके मनुष्य उठकर खड़ा हो गया।
आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देख और उससे बोला- अरे भइया! तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो। किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनाना। इस तरह राजा आगे चलने लगा। राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा उसके पेट में बड़ी जोर का दर्द होने लगा। उस समय उसकी मां रोटी लेकर आई उसने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा और बेटे ने सभी हाल कह दिया तो बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली कि मैं तेरी कथा सुनूंगी तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही कहना। राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही जिसके सुनते ही वह बैल उठ खड़ हुए तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया। राजा अपनी बहन के घर पहुंचा। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा- ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो, मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहिन बोली- हे भैया! यह देश ऐसा ही है कि पहले यहां लोग भोजन करते हैं बाद में अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में हो तो देख आउं। वह ऐसा कहकर देखने चली गई परन्तु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो अतः वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उनके यहां तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर उसका लड का ठीक हो गया अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी।
एक रोज राजा ने अपनी बहन से कहा कि हे बहन! हम अपने घर को जायेंगे। तुम भी तैयार हो जाओ। राजा की बहन ने अपनी सास से कहा। सास ने कहा हां चली जा। परन्तु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है। बहन ने अपने भइया से कहा- हे भइया! मैं तो चलूंगी पर कोई बालक नहीं जाएगा। राजा बोला जब कोई बालक नहीं चलेगा, तब तुम क्या करोगी। बड़े दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा हम निरवंशी हैं। हमारा मुंह देखने का धर्म नहीं है और कुछ भोजन आदि नहीं किया। रानी बोली- हे प्रभो! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। हमें औलाद अवश्य देंगे। उसी रात को बृहस्पतिदेव ने राजा से स्वप्न में कहा- हे राजा उठ। सभी सोच त्याग दे तेरी रानी गर्भ से है। राजा की यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने में उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला- हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती हे बिना कहे नहीं रह सकती। जब मेरी बहिन आवे तुम उससे कुछ कहना मत। रानी ने सुनकर हां कर दिया।
जब राजा की बहिन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, तभी रानी ने कहा- घोड़ा चढ कर तो नहीं आई, गधा चढ़ी आई। राजा की बहन बोली- भाभी मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती। बृहस्पतिदेव ऐसे ही हैं, जैसी जिसके मन में कामनाएं हैं, सभी को पूर्ण करते हैं, जो सदभावनापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ ता है अथवा सुनता है दूसरो को सुनाता है बृहस्पतिदेव उसकी मनोकामना पूर्ण करते हैं।
भगवान बृहस्पतिदेव उसकी सदैव रक्षा करते हैं संसार में जो मनुष्य सदभावना से भगवान जी का पूजन व्रत सच्चे हृदय से करते हैं तो उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने उनकी कथा का गुणगान किया तो उनकी सभी इच्छायें बृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की थीं। इसलिए पूर्ण कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए। हृदय से उसका मनन करते हुए जयकारा बोलना चाहिए।
॥ बोलो बृहस्पतिदेव की जय। भगवान विष्णु की जय॥
बृहस्पतिदेव की कथा
प्राचीन काल में एक ब्राह्मण रहता था, वह बहुत निर्धन था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत मलीनता के साथ रहती थी। वह स्नान न करती, किसी देवता का पूजन न करती, इससे ब्राह्मण देवता बड़े दुःखी थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे किन्तु उसका कुछ परिणाम न निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्मण की स्त्री के कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ। कन्या बड़ी होने पर प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाप व बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। अपने पूजन-पाठ को समाप्त करके विद्यालय जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। तब ये जौ स्वर्ण के जो जाते लौटते समय उनको बीन कर घर ले आती थी।
एक दिन वह बालिका सूप में उस सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि उसके पिता ने देख लिया और कहा - हे बेटी! सोने के जौ के लिए सोने का सूप होना चाहिए। दूसरे दिन बृहस्पतिवार था इस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करके कहा- मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो। बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी जब लौटकर जौ बीन रही थी तो बृहस्पतिदेव की कृपा से सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उसमें जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है कि वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उस समय उस शहर का राजपुत्र वहां से होकर निकला। इस कन्या के रूप और कार्य को देखकर मोहित हो गया तथा अपने घर आकर भोजन तथा जल त्याग कर उदास होकर लेट गया। राजा को इस बात का पता लगा तो अपने प्रधानमंत्री के साथ उसके पास गए और बोले- हे बेटा तुम्हें किस बात का कष्ट है? किसी ने अपमान किया है अथवा और कारण हो सो कहो मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो। अपने पिता की राजकुमार ने बातें सुनी तो वह बोला- मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है परन्तु मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हूं जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। यह सुनकर राजा आश्चर्य में पड ा और बोला- हे बेटा! इस तरह की कन्या का पता तुम्हीं लगाओ। मैं उसके साथ तेरा विवाह अवश्य ही करवा दूंगा। राजकुमार ने उस लड की के घर का पता बतलाया। तब मंत्री उस लड की के घर गए और ब्राह्मण देवता को सभी हाल बतलाया। ब्राह्मण देवता राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने के लिए तैयार हो गए तथा विधि-विधान के अनुसार ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।
कन्या के घर से जाते ही पहले की भांति उस ब्राह्मण देवता के घर में गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री के पास गए। बेटी ने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और अपनी मां का हाल पूछा। तब ब्राह्मण ने सभी हाल कहा। कन्या ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सारा हाल कहा तो लड की बोली- हे पिताजी! आप माताजी को यहां लिवा लाओ। मैं उसे विधि बता दूंगी जिससे गरीबी दूर हो जाए। वह ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर पहुंचे तो अपनी मां को समझाने लगी- हे मां तुम प्रातःकाल प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जावेगी। परन्तु उसकी मांग ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठन को खा लिया। इससे उसकी पुत्री को भी बहुत गुस्सा आया और एक रात को कोठरी से सभी सामान निकाल दिया और अपनी मां को उसमें बंद कर दिया। प्रातःकाल उसे निकाला तथा स्नानादि कराके पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई और फिर प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसके मां बाप बहुत ही धनवान और पुत्रवान हो गए और बृहस्पतिजी के प्रभाव से इस लोक के सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुए।
सब बोलो विष्णु भगवान की जय। बोलो बृहस्पति देव भगवान की जय
श्री हरसू ब्रह्म चालीसा (Shri Harsu Brahm Chalisa)
श्री हरसू ब्रह्म चालीसा (Shri Harsu Brahm Chalisa)
बाबा हरसू ब्रह्म के चरणों का करि ध्यान।
चालीसा प्रस्तुत करूं पावन यश गुण गान॥
हरसू ब्रह्म रूप अवतारी।
जेहि पूजत नित नर अरु नारी॥१॥
शिव अनवद्य अनामय रूपा।
जन मंगल हित शिला स्वरूपा॥ २॥
विश्व कष्ट तम नाशक जोई।
ब्रह्म धाम मंह राजत सोई ॥३॥
निर्गुण निराकार जग व्यापी।
प्रकट भये बन ब्रह्म प्रतापी॥४॥
अनुभव गम्य प्रकाश स्वरूपा।
सोइ शिव प्रकट ब्रह्म के रूपा॥५॥
जगत प्राण जग जीवन दाता।
हरसू ब्रह्म हुए विखयाता॥६॥
पालन हरण सृजन कर जोई।
ब्रह्म रूप धरि प्रकटेउ सोई॥७॥
मन बच अगम अगोचर स्वामी।
हरसू ब्रह्म सोई अन्तर्यामी॥८॥
भव जन्मा त्यागा सब भव रस।
शित निर्लेप अमान एक रस॥९॥
चैनपुर सुखधाम मनोहर।
जहां विराजत ब्रह्म निरन्तर॥१०॥
ब्रह्म तेज वर्धित तव क्षण-क्षण।
प्रमुदित होत निरन्तर जन-मन॥११॥
द्विज द्रोही नृप को तुम नासा।
आज मिटावत जन-मन त्रासा॥१२॥
दे संतान सृजन तुम करते।
कष्ट मिटाकर जन-भय हरते॥१३॥
सब भक्तन के पालक तुम हो।
दनुज वृत्ति कुल घालक तुम हो॥१४॥
कुष्ट रोग से पीड़ित होई।
आवे सभय शरण तकि सोई॥१५॥
भक्षण करे भभूत तुम्हारा।
चरण गहे नित बारहिं बारा॥१६॥
परम रूप सुन्दर सोई पावै।
जीवन भर तव यश नित गावै॥१७॥
पागल बन विचार जो खोवै।
देखत कबहुं हंसे फिर रोवै॥१८॥
तुम्हरे निकट आव जब सोई।
भूत पिशाच ग्रस्त उर होई॥१९॥
तुम्हरे धाम आई सुख माने।
करत विनय तुमको पहिचाने॥२०॥
तव दुर्धष तेज के आगे।
भूत-पिशाच विकल होई भागे॥२१॥
नाम जपत तव ध्यान लगावत।
भूत पिशाच निकट नहिं आवत॥२२॥
भांति-भांति के कष्ट अपारा।
करि उपचार मनुज जब हारा॥२३॥
हरसू ब्रह्म के धाम पधारे।
श्रमित-भ्रमित जन मन से हारे॥२४॥
तव चरणन परि पूजा करई।
नियत काल तक व्रत अनुसरई॥२५॥
श्रद्धा अरू विश्वास बटोरी।
बांधे तुमहि प्रेम की डोरी॥२६॥
कृपा करहुं तेहि पर करुणाकर।
कष्ट मिटे लौटे प्रमुदित घर॥२७॥
वर्ष-वर्ष तव दर्शन करहीं।
भक्ति भाव श्रद्धा उर भरहीं॥२८॥
तुम व्यापक सबके उर अंतर।
जानहुं भाव कुभाव निरन्तर॥२९॥
मिटे कष्ट नर अति सुख पावे।
जब तुमको उन मध्य बिठावे॥३०॥
करत ध्यान अभ्यास निरन्तर।
तब होइहहिं प्रकाश उर अंतर॥३१॥
देखिहहिं शुद्ध स्वरूप तुम्हारा।
अनुभव गम्य विवेक सहारा॥३२॥
सदा एक-रस जीवन भोगी।
ब्रह्म रूप तब होइहहिं योगी॥३३॥
यज्ञ-स्थल तव धाम शुभ्रतर।
हवन-यज्ञ जहं होत निरंतर॥३४॥
सिद्धासन बैठे योगी जन।
ध्यान मग्न अविचल अन्तर्मन॥३५॥
अनुभव करहिं प्रकाश तुम्हारा।
होकर द्वैत भाव से न्यारा॥३६॥
पाठ करत बहुधा सकाम नर।
पूर्ण होत अभिलाष शीघ्रतर॥३७॥
नर-नारी गण युग कर जोरे।
विनवत चरण परत प्रभु तोरे॥३८॥
भूत पिशाच प्रकट होई बोले।
गुप्त रहस्य शीघ्र ही खोले॥३९॥
ब्रह्म तेज तव सहा न जाई।
छोड़ देह तब चले पराई॥४०॥
पूर्ण काम हरसू सदा, पूरण कर सब काम।
परम तेज मय बसहुं तुम, भक्तन के उर धाम॥
Floating 7-Foot Head Leaves Rowers Scratching Theirs
The crew team at New York's Marist College came across a puzzling sight this week when a large, foam head, floating in the Hudson River, crossed their path toward the end of their morning row.
While on the river Monday morning, crew coach Matt Lavin was the first to spot the mysterious 7-foot-high, fiberglass-c0vered head, which is 4 to 5 feet wide. The ominous sighting gave the coach pause, and he had his team stay back as he approached to investigate.
"[Lavin] was in a small motor boat beside the team," Greg Cannon, director of public affairs for the Poughkeepsie school, told ABCNews.com. "He didn't know what it was at first, but saw it was an obstruction that would have been in the way of the shipping channel. So he went out to investigate."
Once he realized he wasn't in a scene from "The Planet of the Apes" and that it wouldn't be terribly heavy, he wrapped a line around the head and towed it himself. The crew team then helped him pull in from the water.
"They pulled it in and it's some kind of Styrofoam core with a fiberglass shell over it," Cannon said. "Enough of the foam was exposed that it got water logged. It had gotten pretty heavy. Members of the team helped drag it up onto the dock."
As for where the head came from, that's still a mystery, but Cannon said he's open to any theories.
The most compelling theory he has heard? The head is from a Mardi Gras float, was washed away by Hurricane Katrina and, eight years later, somehow ended up in the Hudson River.
While on the river Monday morning, crew coach Matt Lavin was the first to spot the mysterious 7-foot-high, fiberglass-c0vered head, which is 4 to 5 feet wide. The ominous sighting gave the coach pause, and he had his team stay back as he approached to investigate.
"[Lavin] was in a small motor boat beside the team," Greg Cannon, director of public affairs for the Poughkeepsie school, told ABCNews.com. "He didn't know what it was at first, but saw it was an obstruction that would have been in the way of the shipping channel. So he went out to investigate."
Once he realized he wasn't in a scene from "The Planet of the Apes" and that it wouldn't be terribly heavy, he wrapped a line around the head and towed it himself. The crew team then helped him pull in from the water.
"They pulled it in and it's some kind of Styrofoam core with a fiberglass shell over it," Cannon said. "Enough of the foam was exposed that it got water logged. It had gotten pretty heavy. Members of the team helped drag it up onto the dock."
As for where the head came from, that's still a mystery, but Cannon said he's open to any theories.
The most compelling theory he has heard? The head is from a Mardi Gras float, was washed away by Hurricane Katrina and, eight years later, somehow ended up in the Hudson River.
Saturday, 4 May 2013
North Korea puts rockets on standby as US official warns regime is no 'paper tiger'
North Korea put its rocket units on standby Friday to attack U.S. military bases in South Korea and the Pacific, after repeated threats one day after two American stealth bombers flew over the Korean Peninsula in a military exercise.
A U.S. official warned that the isolated communist state is “not a paper tiger” and its reaction should not be dismissed as “pure bluster.”
According to South Korea's news agency, Yonhap, North Korea announced Saturday that it had entered a state of war against South Korea. "In a special statement, the North said it will deal with every inter-Korean issue in a wartime manner," Yonhap reported. NBC News could not immediately confirm.
The two Koreas have been in a technical state of war because their 1950-53 conflict ended under an armistice and not a peace treaty.
NBC's Andrea Mitchell examines North Korea's brewing threats and what they mean for neighboring South Korea.
According to North Korea's official KCNA news agency, the country's leader Kim Jong Un “judged the time has come to settle accounts with the U.S. imperialists in view of the prevailing situation” at a midnight meeting of top generals, Reuters reported.
The latest threats come one day after two nuclear-capable stealth bombers flew from Missouri to drop inert munitions on a range in South Korea as part of a major military exercise.
The U.S. official emphasized the danger posed by North Korea’s military and the unpredictable nature of its 30-year-old leader.
“North Korea is not a paper tiger so it wouldn't be smart to dismiss its provocative behavior as pure bluster. What's not clear right now is how much risk Kim Jong Un is willing to run to show the world and domestic elites that he's a tough guy,” said the official, who asked not to be named. “His inexperience is certain -- his wisdom is still very much in question.”
There was a mass demonstration in support of Kim involving tens of thousands of people in the main square of North Korean capital Pyongyang Friday, The Associated Press reported.
Placards read "Let's crush the puppet traitor group" and "Let's rip the puppet traitors to death!"
'War for national liberation'
The state-controlled KCNA also published an article that said the “opportunity for peacefully settling the DPRK-U.S. relations is no longer available as the U.S. opted for staking its fate. Consequently, there remains only the settlement of accounts by a physical means.” DPRK stands for Democratic People’s Republic of Korea, the North's official name.
A U.S. official warned that the isolated communist state is “not a paper tiger” and its reaction should not be dismissed as “pure bluster.”
According to South Korea's news agency, Yonhap, North Korea announced Saturday that it had entered a state of war against South Korea. "In a special statement, the North said it will deal with every inter-Korean issue in a wartime manner," Yonhap reported. NBC News could not immediately confirm.
The two Koreas have been in a technical state of war because their 1950-53 conflict ended under an armistice and not a peace treaty.
NBC's Andrea Mitchell examines North Korea's brewing threats and what they mean for neighboring South Korea.
According to North Korea's official KCNA news agency, the country's leader Kim Jong Un “judged the time has come to settle accounts with the U.S. imperialists in view of the prevailing situation” at a midnight meeting of top generals, Reuters reported.
The latest threats come one day after two nuclear-capable stealth bombers flew from Missouri to drop inert munitions on a range in South Korea as part of a major military exercise.
The U.S. official emphasized the danger posed by North Korea’s military and the unpredictable nature of its 30-year-old leader.
“North Korea is not a paper tiger so it wouldn't be smart to dismiss its provocative behavior as pure bluster. What's not clear right now is how much risk Kim Jong Un is willing to run to show the world and domestic elites that he's a tough guy,” said the official, who asked not to be named. “His inexperience is certain -- his wisdom is still very much in question.”
There was a mass demonstration in support of Kim involving tens of thousands of people in the main square of North Korean capital Pyongyang Friday, The Associated Press reported.
Placards read "Let's crush the puppet traitor group" and "Let's rip the puppet traitors to death!"
'War for national liberation'
The state-controlled KCNA also published an article that said the “opportunity for peacefully settling the DPRK-U.S. relations is no longer available as the U.S. opted for staking its fate. Consequently, there remains only the settlement of accounts by a physical means.” DPRK stands for Democratic People’s Republic of Korea, the North's official name.
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